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Post partum Depression and Psychosis

Post partum Depression and Psychosis

(महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा डॉ रश्मि मोघे हिरवे का यह लेख महिलाओं के प्रसव के बाद होने वाली मानसिक समस्याओं के बारे में है। इस लेख में बताया गया है कि मानसिक समस्याएं किस तरह से केमिकल और हार्मोनल इंबैलेंस से जुड़ी हुई हैं और किस तरह मस्तिष्क के रसायन, शरीर के हार्मोन्स एवं महिला के आस पास के वातावरण में आने वाले उतार चढ़ाव मिलकर मानसिक समस्याएं उत्पन्न करते हैं तथा मानसिक समस्याएं व्यक्ति की कमज़ोरी या मूर्खता नही है, जैसा कि एक भ्रांति भी है।)

मायरा की ये पहली डिलिवरी थी, एक प्यारी सी बिटिया को उसने जन्म दिया, डिलिवरी के बाद से मायरा को थोड़ी घबराहट की शिकायत होने लगी, रोना भी आ रहा था कभी कभी, मनोदशा में उतार चढाव हो रहे थे, नींद भी नही आ रही थी ठीक से, उसे समझ नही आ रहा था कि उसे रोना क्यों आ रहा था, घबराहट क्यों हो रही थी, मन कच्चा कच्चा क्यों हो रहा था? उसे लगने लगा जैसे वो संभाल नहीं पाएगी सब कुछ, चीज़ें उसके हाथ से बाहर निकल जाएंगी।

मायरा गर्भावस्था के सातवें महीने से अपने मायके में अपनी मां के पास थी, मां उसकी अच्छी देखभाल कर रही थी, ऊपर के काम और मालिश के लिए घरेलू सहायिका की भी व्यवस्था की गई थी। मां ढांढस बंधाती रही कि नई नई मां बनने पर ऐसा लग सकता है। अगले दस बारह दिन में धीरे धीरे मायरा के ये लक्षण कम होकर खत्म गए। इन्हे बेबी ब्लूज या पोस्ट पार्टम ब्लूज कहा जाता है।

नेहा अपने पति रवि और सास के साथ रहती है, माता का देहांत हो चुका है। नेहा ने बड़े कष्टों से अपनी पढ़ाई पूरी की और एक प्राइवेट जॉब कर रही थी। गर्भावस्था होने पर कुछ जटिलताओं के चलते उसे डॉक्टर ने बेड रेस्ट लेने को बोला तब नेहा ने परिवार वालों की सहमति से बच्चा थोड़ा बड़ा होने तक अपने कैरियर से एक ब्रेक लेने का फैसला किया। 

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नेहा ने एक स्वस्थ्य सुंदर लड़के को जन्म दिया, प्रसव के कुछ दिनों बाद नेहा को बेचैनी होने लगी, उसे नींद आने में दिक्कत होने लगी, नींद टूटने लगी, बुरे बुरे सपने जिनमे अक्सर वो खुद को कभी पानी में, कभी खाई में गिरता हुआ महसूस करती, दिखाई देने लगे। धीरे धीरे भूख न लगना, किसी काम में मन न लगना, चिड़चिड़ छूटना, मन पूरे समय कड़वा लगना, छोटी छोटी बातों पर बुरा लगना, रोना आना होने लगा। बच्चे को संभालना उसके लिए दिनो दिन मुश्किल होता गया, उसे ऐसा लगने लगा कि ये बच्चा पैदा करना उसके जीवन की बहुत बड़ी भूल थी, बहुत मेहनत से उसने जो कैरियर बनाया था, वो खत्म हो गया, उसका जीवन उसे व्यर्थ लगने लगा। कोई भी काम करना दिनों दिन उसके लिए मुश्किल होने लगा, वो अपने आप को शक्तिहीन महसूस करने लगी, पूरे दिन बस पड़े रहने की इच्छा रहती थी, ऐसा लगता था कि शरीर से ताकत बिल्कुल निचुड गई है ।

इन बातों पर पति से और सासु जी से झगड़े होने लगे, सासु जी का कहना था कि कोई तबीयत खराब नहीं है, ये बहाने हैं बच्चे को संभालने और घर के कामों से बचने के, पति को भी अपनी माताजी की बात बिल्कुल सही लगती थी, उसका कहना था कि तुम कोई अकेली औरत नही हो जिसने बच्चे के लिए नौकरी छोड़ी है। या जिसे बच्चा संभालना पड़ रहा है।

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सासु जी और पति को लगता था कि ये कैसी औरत है जिसके दिल में अपने बच्चे के लिए प्यार नही है और दिन रात का रोना मचा रही है।

नेहा को हर कोई सलाह दे रहा था कि खुश रहो बस। लेकिन खुश कैसे रहे नेहा? वो भी खुश रहना चाहती थी, लेकिन नही रह पा रही थी। दिन ब दिन झगड़े बढ़ते जा रहे थे और नेहा की हालत खराब होती जा रही थी, अब बच्चे की देखभाल उस से बिल्कुल नही हो रही थी, बच्चा देखकर वो अब हिचक हिचक कर रोने लगती थी, नेहा के पति रवि ने एक दिन उसे कांपते हुए किचन के चाकू को घूरते हुए देखा, उसने तुरंत उस से पूछा कि ये क्या कर रही हो। नेहा हिलक हिलक कर रोते हुए बोली कि "मैं अब जीना ही नहीं चाहती, मैं मर जाना चाहती हूं।" उस दिन रवि के दिमाग को झटका लगा, उसे महसूस हुआ कि शायद नेहा नाटक नही कर रही है, सचमुच बीमार है। अपने दो तीन करीबी मित्रों से उसने सलाह ली, उनमें से एक दोस्त ने उसे नेहा को मनोचिकित्सक को दिखाने की सलाह दी। 

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महिला मनोचिकित्सक ने नेहा का असेसमेंट करने के बाद उसके पति को और सासु जी की नेहा की स्थिति की गंभीरता के बारे में समझाया। मनोचिकित्सक ने उन्हे बताया कि इस स्थिति को पोस्ट पार्टम डिप्रेशन कहते हैं और इसका अच्छी तरह से इलाज होना जरूरी है, पूरी सावधानियां बरतते हुए दवाइयों और काउंसलिंग के साथ नेहा का इलाज किया गया। कुछ दिनों के लिए नेहा की बड़ी बहन नेहा और बच्चे की देखभाल के लिए आ गई, जिससे बहुत मदद मिली। अच्छे इलाज और देखभाल से नेहा की तबीयत धीरे धीरे ठीक हो गई, और अब वो एक सुखी परिवार है।

ऊपर के ये दोनो केस गर्भावस्था के बाद माता को होने वाली मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के हैं,

डिलिवरी के बाद महिलाओं के शरीर में अचानक से हार्मोन्स के स्तर में गिरावट आती है, जिससे न्यूरोट्रांसमीटर (मस्तिष्क में भावनाओं, मिजाज, यादें आदि को नियंत्रित करने में सहायक रसायन) का स्तर भी प्रभावित होते हैं। इसके अलावा एक नन्ही जान को संभालने की जिम्मेदारी, ऑपरेशन या नॉर्मल डिलीवरी का दर्द, टांकें, दूध उतरने चिंता, बार बार दूध पिलाने की जरूरत, ढंग से सोने को न मिलना। शरीर उतना सुंदर महसूस न करना, एकदम से जीवन में अत्यधिक बदलाव आ जाना, ये सब होने की वजह से माता काफी तनाव में रहती है।

इनमे से पहला केस पोस्ट पार्टम ब्लूज (बेबी ब्लूज) का है। बेबी ब्लूज की समस्या लगभग 50 फीसदी से 80 फीसदी माताओं को हार्मोनल बदलावों की वजह से होती है। 

इसके लक्षणों में रोना आना, घबराहट, नींद में दिक्कत, उदासी, चिड़चिड़ाहट होना शामिल है। ये दिक्कत डिलिवरी के बाद जल्दी ही शुरू होकर लगभग दो हफ्तों में अपने आप ही समाप्त हो जाती है। बस माता का अच्छे से ध्यान रखा जाए और देखभाल की जाए, उसे सपोर्ट किया जाए।

दूसरा केस अधिक गंभीर समस्या का है जिसे पोस्ट पार्टम डिप्रेशन कहा जाता है, कॉम्प्लेक्स बायोलॉजिकल, सोशल, इंडिविजुअल कारणों के चलते, लगभग दस से पंद्रह फीसदी महिलाओं को डिलिवरी के बाद ये समस्या हो जाती है। याने डिलिवरी के पश्चात सौ में से लगभग दस से पंद्रह महिलाओं को डिप्रेशन हो सकता है, जो कि काफी बड़ा आंकड़ा है।

डिलीवरी के कुछ समय के अंदर ये समस्या चालू हो जाती है, इसके लक्षणों में रोना आना, अत्यधिक उदासी, चिड़चिड़ाहट, गुस्सा, थकान, भूख न लगना, नींद न आना, जीवन से बेज़ारी, जीवन में कोई खुशी और उम्मीद न रहना, पूरी तरह से निराश हो जाना, आत्मविश्वास खत्म होना, आत्महत्या के विचार आना, बच्चे से बॉन्डिंग होने में दिक्कत होना, बच्चे को नुकसान पहुंचाने के विचार भी आ सकते हैं। 

बेबी ब्लूज और इसमें ये फर्क है कि बेबी ब्लूज डिलिवरी के बाद लगभग 2 हफ्तों में समाप्त हो जाती है। उसमे इतने गंभीर लक्षण नही होते हैं और उसके लक्षणों की तीव्रता भी इतनी अधिक नहीं होती हैं।

किंतु पोस्ट पार्टम डिप्रेशन कुछ दिनों में खत्म नहीं होता, बिना इलाज के ये कई कई महीनों तक चलता रह सकता है, इसके लक्षण गंभीर होते हैं और इसमें मनोरोग संबंधी दवाओं द्वारा इलाज की आवश्यकता होती है, जो कि बेहद उपयोगी सिद्ध होती हैं। 

एक तीसरी स्थिति भी होती है जिसे पोस्ट पार्टम साइकोसिस कहते हैं, लगभग एक हजार माताओं में से एक को ये समस्या हो सकती है। इसमें कानो में आवाजें आना, अजीब चीज़ें दिखाई देना, तरह तरह के भ्रम होना, ऐसा लगना कि बच्चा दुष्ट आत्मा या चमत्कारिक शक्ति युक्त है, कानो में आवाजें गूंजना जो कि बच्चे को नुकसान पहुंचाने को बोले, समय जगह लोगों का भान न रहना, बड़बड़ाना, घूरना, बिल्कुल अजीब तरह का व्यवहार करना होता है, कई बार माता बच्चे को मारने की कोशिश भी कर सकती है। इसका मनोचिकित्सक द्वारा तुरंत इलाज होना जरूरी है वरना बहुत बड़ा हादसा हो सकता है।

डॉक्टर रश्मि मोघे हिरवे, मनोचिकित्सक एवं काउंसलर 

 सिनेप्स न्यूरोसाइंसेज, भोपाल





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