मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया से नेशनल मेडिकल कमीशन तक- क्या खोया क्या पाया ?
चिकित्सा की भारतीय डिग्रियाँ हमेशा से अपनी उच्च गुणवत्ता के लिए जानी जाती हैं। फिर चाहे वो एम. बी. बी. एस. हो अथवा एम डी/ डीएम। उसकी वजह है इतनी बड़ी आबादी का कपड़छन ही मेडिकल कॉलेज तक पहुँच पाता है अर्थात उच्च आई क्यू वाले ही मेडिकल की कठिन प्रवेश परीक्षा पास कर पाते है। इसमें एक अन्य महत्वपूर्ण कारक भी था। हमारे यहाँ तकनीकी एवं चिकित्सा शिक्षा के स्तर के आकलन और मान्यता देने वाली ऑटोनोमस् संस्थाऐ गुणवत्ता से समझौता नहीं करती थी ।
Also read-
Jaipur to Host National Medicolegal Summit in April this Year
मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया एक ऐसी ही संस्था थी जिसका गठन 1956 के मेडिकल काउंसिल एक्ट के तहत हुआ था और इसके सदस्यों का निर्वाचन और नॉमिनेशन इतनी जटिल प्रक्रिया के तहत होता था कि केंद्र सरकार का पर्याप्त प्रभाव होते हुए भी यह एक स्वायत्त संस्था थी, अर्थात MCI का स्थान चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय न्यायपालिका की तरह था क्योंकि न्यायपालिका को निर्वाचित सरकार के सीधे कंट्रोल से इसलिए बाहर रखते हैं अन्यथा सारे निर्णय सरकार की मंशा के अनुरूप होंगे और जो उचित न होगा क्योंकि आम आदमी का फेयर ट्रायल का संवैधानिक अधिकार प्राप्त होना चाहिए क्योंकि अभी भी भारत में चलने वाले अदालती मामलों में से लगभग 45% में एक पार्टी राज्य शासन या केंद्र शासन रहता है ।
यदि विवेचना करने वाली एजेंसी( पुलिस) ,न्यायालय और जेल एक ही जगह से कंट्रोल होंगे तो निरंकुशता जन्म लेगी ।इसको इस उदाहरण से समझे - जैसे कि भारत पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच हो रहा है,और अंपायर भारत का नागरिक है।भारतीय अंपायर से यही उम्मीद रहेगी की वो निष्पक्ष निर्णय दे भले ही चाहे वो भारत का नागरिक हो; लेकिन कल्पना करिए उसी मैच में वही अंपायर भारतीय टीम का साथ देने की ठान ले तो एक तरफ तो उसकी देशभक्ति की आप तारीफ करेंगे,लेकिन अपने धर्म के सही निर्वाह न करने का आरोप तो उस पर लगेगा ही ।
कुछ ऐसा ही तब हुआ जब मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के मेडिकल कॉलेज खोलने के कड़े मापदंडों की वजह से सरकार को असुविधा होने लगी क्योंकि एमसीआई पूर्व निर्धारित फैकल्टी और इन्फ्रास्ट्रक्चर के अभाव में कोर्स शुरू करने की परमिशन नहीं देती थी।साथ ही 2001 के बाद भारत में निजी मेडिकल कॉलेज खुलने के बाद भ्रष्टाचार इतना बढ़ गया की एमबीबीएस की एक सीट पचास लाख से 1 करोड़ में बिकने लगी ।
Also Read-
Lok Adalat orders in favor of hospital, Patient told to settle pending hospital bill with interest
भारत में चिकित्सा व्यवसाय का निश्चित भविष्य और सुरक्षित नौकरी पाने की गारंटी होने की वजह से पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स में प्रति सीट कुछ करोड़ तक का भी लेनदेन होने लगा अतः इन्ही कारणों के चलते 2019 में नेशनल मेडिकल कमिशन (एनएमसी) का गठन किया गया जिसने 1956 का एमसीआई एक्ट के तहत बनी मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया का स्थान लिया। MCI के कड़क फिल्टर हटने के बाद मेडिकल कॉलेज खोलना और चलाना आसान हो गया क्योंकि पहले यदि एमसीआई प्रति सौ एमबीबीएस विद्यार्थी पर दस चिकित्सा शिक्षक मांगती थी तो उस की जगह एनएमसी ने मात्र दो अथवा चार चिकित्सा शिक्षक की मांग रखी। भवन ,उपकरण और इंफ्रास्ट्रक्चर जैसी कई सारी मैंडेटरी क्राइटेरिया में भी काफी रिलैक्सेशन किया जाने लगा। यह उस देश के लिए बहुत अच्छी खबर थी जहां चिकित्सकों की हमेशा कमी रहती थी और विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के प्रति हजार जनसंख्या पर एक डॉक्टर का नॉर्म होने की रिकमेंडेशन के बाद भी प्रति सौलह सौ आबादी पर एक डॉक्टर था ।फलस्वरुप मेडिकल कॉलेज धड़ले से खुलने लगे ,बेहिसाब सीटों की वृद्धि हुई और एमडी,एमएस, की डिग्री सबको मिलने लगी। उदाहरण के लिएइसी वर्ष ही सभी आरक्षित और अनारक्षित वर्ग में जीरो परसेंट पर एडमिशन हुए। लेकिन इस बेतहाशा जल्दबाजी में टीचर स्टूडेंट रेश्यो और मरीज स्टूडेंट रेश्यो का ध्यान नहीं रखा गया,इस वजह से विद्यार्थी को पढ़ाने के लिए के लिए कम अध्यापक और सीखने के लिए कम सब्जेक्ट मिलने लगे।
Also Read-
NMC invites comments from stakeholders on the issue of broadcasting of Live Surgeries
स्किन और सायकेट्री जैसे माइनर विषय के एक चिकित्सक के भरोसे एक मेडिकल कॉलेज के कभी-कभी 700 से 800 विद्यार्थी रहने लगे।फलस्वरुप डॉक्टरों की भीड़ अब प्रतिवर्ष तैयार होने लगी लेकिन चिकित्सा शिक्षा के उच्च मापदंडों को शिथिल करने की कीमत पर ही यह संभव हो पाया।
एनएमसी कोई भी कोर्स शुरू करने संबंधी आवश्यक परमिशन देने में इतना लिबरल रहा की मध्य प्रदेश जैसे राज्य जहां पहले पांच मेडिकल कॉलेज थे वहां अब तीस और पैंतीस मेडिकल कॉलेज हो गए और अगले पंद्रह बीस पाइपलाइन में हैं जो भारत जैसे देश ,जो स्किल्ड मैनपावर की कमी से हमेशा जूझता है ,बहुत ही अच्छी खबर थी।फिर कुछ वर्ष पहले हुई एक अभूतपूर्व घटना हुई और आयुष्मान भारत योजना का आगमन हुआ, जिसके चलते हर आदमी निजी अस्पतालों में भी सरकार के खर्चे पर इलाज करवा सकता है।तो सरकारी मेडिकल कॉलेज में आने वाले मरीजों की संख्या में बहुत कमी आई है। जब मरीज ही ना रहेंगे तो शिक्षक प्रशिक्षण की क्वालिटी गिरना स्वाभाविक है क्योंकि विभिन्न वैरायटी के मरीजों पर शिक्षक की मौजूदगी में प्रशिक्षण ही मेडिकल साइंस की बुनियाद रहती है। लेकिन वहीं फायदा यह रहा कि डॉक्टरों की बढ़ी हुई जनसंख्या से प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र स्तर तक डॉक्टर की उपलब्धता बढ़ गई जबकि पहले कोई डॉक्टर देहात में जाने तैयार नहीं होता था।15 वर्ष पहले तक भी तहसील स्तर पर सरकारी अस्पताल में इक्का दुक्का डॉक्टर रहता था और वो भी कोर्ट कचहरी के बयान और पोस्टमार्टम इत्यादि की वजह से इलाज के लिए उपलब्ध नहीं हो पाता था।अब डॉक्टर लगभग सभी छोटी बड़ी सरकारी अस्पतालों में है। इस समय जरूरत है ऐसे समन्वय की जिसमें क्वांटिटी एवं क्वालिटी दोनों पर जोर दिया जाए.मेडिकल कॉलेज के मानक बिना नीचे गिराये डॉक्टरों की पर्याप्त संख्या उपलब्ध रहे। जिसका एक ही तरीका है को बजट का बड़ा हिस्सा चिकित्सा शिक्षा पर खर्च हो ताकि पुरानी गुणवत्ता के साथ ज्यादा से ज्यादा डॉक्टर तैयार हों।
Ps -मेरे एक अस्थि रोग विशेषज्ञ मित्र जब कर्नल गद्दाफी के दौर में लीबिया में नौकरी कर रहे थे , उस दौर के बारे में वे बताते हैं कि यूरोपियन इत्यादि सभी राष्ट्रीयता के डॉक्टर उपलब्ध होने के बाद भी लीबिया के मरीज भारतीय डॉक्टर को दिखाने की जिद करते थे।वजह थी हमारे डॉक्टरों का किताबी और व्यवहारिक ज्ञान अंतराष्ट्रीय स्तर से भी बेहतर रहता था जो शायद भविष्य में उतना उन्नत न रहे।
Recent comments
Latest Comments section by users
Guest
Feb 07, 2024
IMA, UPCHAR and other societies must come forward against such medical colleges without 5 infrastructure and faculties.
Guest
Feb 07, 2024
सटीक अभिव्यक्ति।
Guest
Feb 07, 2024
Faltu ka ps
Guest
Feb 27, 2024
इतनी अच्छी भाषा शैली एक हिंदी मीडियम छात्र की ही हो सकती है.