अपनी सुख सुविधाओं में कटौती कर लोगों को चिकित्सा सुविधा मुहैया कराने में विफल सरकारों ने एक नया रास्ता निकाला है, और निजी क्षेत्र का न सिर्फ अनुसरण किया है बल्कि उनको गुरुदक्षिणा में करदाता के पैसे में से एक हिस्सा भी उपलब्ध करवाया है।
प्रायोगिक और व्यावहारिक शिक्षा के कारण अस्पताल चिकित्सा शिक्षा संस्थान का एक अभिन्न अंग है और इसी लिए चिकित्सा शिक्षा के लिए अधिकृत परिषद के मापदंडों में हमेशा से न सिर्फ अस्पताल की आधारभूत संरचना बल्कि उनका उपयोग और मरीजों की उपस्थिति के मापदंड भी एक मूलभूत आवश्यकता रही है। जब आम भारतीय की आमदनी उसकी दैनिक जरूरत बमुश्किल पूरा करने भर की थी, तो मरीज सरकारी अस्पताल जाकर मुफ्त इलाज लेते थे और इस कारण निजी अस्पतालों में मरीजों का अकाल रहता था। मरीजों से नियमित आय न होने से इन अस्पतालों को आधारभूत संरचना की पूंजी लागत तो छोड़िए, चिकित्सको का वेतन भी चिकित्सा सेवाओं से नही निकल पाता था और इस कारण से निजी चिकित्सा शिक्षा क्षेत्र में चिकित्सा शिक्षार्थी को ही अस्पताल, चिकित्सा सेवाओं और बहुधा मरीजों के परिवहन और दैनिक भत्तों की लागत भी वहन करनी होती थी, जिससे निजी चिकित्सा शिक्षा महंगी थी और निजी मेडिकल कॉलेज बेहद कम। वही दूसरी और जब सरकारी अस्पतालों को चिकित्सा महाविद्यालयों में क्रमोन्नत किया गया तो कार्यरत चिकित्सको को शिक्षा का अतिरिक्त दायित्व सौंपा गया और तत्कालीन सरकार ने सिर्फ आधारभूत संरचना की अतिरिक्त लागत वहन की, जो किसी भी अन्य महाविद्यालय (Non medical college) के जैसे ही थी और इसी कारण से इन में पढ़ने वाले छात्रों की फीस सामान्य सरकारी विद्यालय जैसे ही ली जाती रही।
कालांतर में राजनीतिक रोटियां सेंकने हेतु जब दूर दराज के क्षेत्र में आधारभूत संरचना के बिना ही चिकित्सको को नियुक्त किया जाने लगा तो चिकित्सको ने सरकारी नौकरियों के रुचि लेना बंद कर दिया क्योंकि उन्हें न सिर्फ कार्य संतोष नही मिल रहा था, उनका वेतन उनके दायित्वों, काम करने के माहौल के अनुरूप नहीं लगता था, जबकि प्रवेश परीक्षाओं में वरीयता में पीछे रहने के कारण वंचित छात्र प्रशासनिक पदों पर नियुक्त हो कर बेहतर सम्मान, वेतन, जीवनशैली का सुख ले रहे थे। चिकित्सको पर दबाव बनाने हेतु चिकित्सा शिक्षा की ऊंची लागत का हवाला दे कर उन्हे सरकारी और दूरदराज के क्षेत्र में सेवा देने हेतु मजबूर किया जाने लगा, जो पहले सिर्फ नैतिक और बाद में वैधानिक भी कर दिया गया। लेकिन यह दबाव बिल्कुल अनुचित था क्योंकि बताई गई हवाई लागत निजी क्षेत्र से ली गई थी और न सिर्फ अनैतिक थी क्योंकि मुफ्त चिकित्सा निजी संस्थान का दायित्व नही है, बल्कि इस बात को भी नजर अंदाज करती थी कि इन लोगों ने श्रेष्ठता साबित करके वो सीट हासिल की थी। इसी बहाने से चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में बंधुआ प्रथा को कानूनी जामा पहना कर उन्हे शिक्षा के बदले मनचाहे वेतन और कार्यस्थिति पर काम के लिए बंधक पत्र देने पर मजबूर किया जाने लगा।
चिकित्सको से इतर सरकारी नौकरियों की निरंतर बढ़ती ताकत और वेतन ने लोगों को आकर्षित तो किया पर सीमित संख्या और सफल न होने पर विकल्प की कमी और हर हाथ को सम्मानजनक काम देने में विफल रहने से भद्र और कुलीन चिकित्सा का क्षेत्र परिजनों को अपने बच्चो के लिए अच्छा पेशा लगने लगा, और बंधक पत्र से शुरू हुई दोहन की परंपरा अगले स्तर तक पहुंच गई। एक समझदार बाबू ने एक तर्क राजनीतिक नेतृत्व के सामने रखा, कि जब निजी क्षेत्र में इतना शुल्क दे सकते हैं तो सरकारी में क्यों नही? और केंद्र द्वारा मेडिकल कॉलेज की स्थापना पर वित्तीय सहायता ने जिला अस्पतालों को चिकित्सा शिक्षण स्थान में बदलने की चतुर युक्ति को जन्म दिया जिससे अब जिला स्तर के चिकित्सको के वेतन का एक बड़ा हिस्सा चिकित्सा विद्यार्थियों से वसूला जा सके, और उन्हीं के खर्च पर न सिर्फ चिकित्सा सेवाएं प्रोन्नत की जाए बल्कि बंधुआ मजदूरों की एक फौज खड़ी कर दी जाए जो किसी भी वेतन पर, किसी भी अपमान के बावजूद, कैसी भी परिस्थितियों में काम करने को तैयार हो।
इसी दौरान, मुक्त अर्थव्यवस्था के परिणामों से समृद्धि का विस्तार हुआ और अधिकतर निजी शिक्षा संस्थान इससे दोनों तरफ से लाभान्वित हुए, एक तो समृद्ध वर्ग ने सुसज्जित निजी अस्पतालो का रुख किया, जो चिकित्सा शिक्षा परिषद की जरूरतों की वजह से अधिकतर शिक्षा संस्थानों से संबद्ध अस्पताल थे, जिससे इन अस्पतालों की आमदनी बढ़ी, दूसरे अधिशेष आय और बचत होने से वरीयता में पीछे रहे छात्रों ने निजी शिक्षा संस्थानों की राह चुनी और उनकी आय में योगदान किया, इनसे निजी मेडिकल कॉलेज चलाना तो आसान हुआ लेकिन, जमीन की बढ़ती कीमतों और विशालकाय आधारभूत संरचना की आवश्यकता से इन्हे विकसित करना अभी भी खर्चीला था, ऐसे में राजनीतिज्ञों ने मुफ्त जमीन आवंटित कर अधिकतर संस्थानों के प्रत्यक्ष या परोक्ष मालकियत हासिल कर ली।
सरकार की बढ़ती आमदनी, पर चिकित्सा पर लोगो की बेहतर सेवाओं की अपेक्षाओं को पूरा करने में नाकाम कार्यपालिका ने सेवा उपलब्ध करवाने के प्रयास में नागरिकों को सीमित बीमा उपलब्ध करवाए और पुनर्भरण की दरें करदाता के पैसे से बने, विकसित और पोषित अपने अस्पतालों से भी कम रखी (शायद निजी मेडिकल कॉलेज के उदाहरण पर, जहां मरीज के उपचार को छात्रों की करोड़ों की फीस सब्सिडाइज करती है) और इस प्रकार निजी क्षेत्र के छोटे और मझौले अस्पतालों को बंधुआ मजदूरी पर मजबूर किया, और क्योंकि अधिकतर मेडिकल कॉलेज रसूख वालों के थे सो उन्होंने इसे प्रोत्साहित भी किया और हाथो हाथ भी लिया, आखिरकार सालों बाद अब उन्हें मरीजों के उपचार का खर्च अपनी जेब से नही देना था, और ये आय का एक अतिरिक्त स्त्रोत था। मेडिकल कॉलेज की वायबिलिटी बढ़ने से निजी मेडिकल कॉलेज खुलने की रफ्तार भी बढ़ी। सरकारी और निजी मेडिकल कॉलेजों के खुलने से जहां सीटों की भरमार हुई, तो प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले छात्रों की संख्या उसी अनुपात में नही बढ़ी। उस पर माननीय सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कारण स्थानीय स्तर पर पैसे लिए जा कर सीट भरना प्रबंधकों के लिए मुश्किल हो चला। नतीजतन ऊंची फीस वाली सीटों पर खाली रहने का खतरा मंडराने लगा। ऐसे में रसूखदारों की लॉबी ने सरकार को मजबूर किया कि प्रवेश परीक्षा की पात्रता में कमी की जाए और निरंतर स्तर सुधारने की जगह पहले उत्तीर्ण होने के प्राप्तांको में कमी की और 1 लाख सीटों के लिए 10 लाख छात्रों को पात्र घोषित करने हेतु प्राप्तांको की जगह परसेंटाइल का जटिल मापदंड अपनाया। यहां यह बताना अनुचित नहीं होगा की अगर 25 लाख छात्र परीक्षा दें तो 50 percentile से ऊपर 12.5 लाख बच्चे होंगे चाहे उनके प्राप्तांक शून्य या उससे कम ही क्यों न हो। जबकि IIT में IIT की सीटों के 12 गुना बच्चे मुख्य परीक्षा JEE एडवांस्ड के लिए पात्र घोषित किए जाते है! और ये सब इसलिए, कि अगर कम छात्र पात्र घोषित किए गए तो बेहिसाब फीस वाली सीटों पर शायद कोई छात्र प्रवेश न ले, क्योंकि उस सीट पर पात्र छात्र ही कम या नहीं होंगे और जो पात्र होंगे वो शायद इतनी फीस वहन न कर पाएं या ना करना चाहे। सोचिए, जो छात्र 1 करोड़ रुपए की फीस सिर्फ एमबीबीएस के लिए, और इससे भी ज्यादा एमडी/एमएस के लिए देगा, समाज को उससे क्या अपेक्षा रखनी चाहिए ?
निजी क्षेत्र की इतनी फीस को जायज ठहराने हेतु ज्यादा छात्रों को चयनित घोषित करना, लोगों की जेब से नकल करवाने के लिए लाखो रुपए की घूस को बढ़ावा देता है NEET 24 जैसे घोटाले इसकी परिणति नही, सिर्फ रास्ते का एक मील का पत्थर है, अगर अभी नही चेते तो कई छात्र इस धन लोलुपता की बलि चढ़ेंगे और जब इस जो छात्र इस शिक्षा को समझने के काबिल नही हैं, पैसे के बल पर डिग्री हासिल कर लेंगे तब सारे नागरिक भी इस ज्वाला से बच नहीं पाएंगे । NEET की इस त्रासदी को एक चेतावनी और सुधार के एक अवसर के रूप में लेकर हम इस के दर्द को न सिर्फ कम कर पाएंगे, बल्कि भारत के भविष्य को विकसित देशों जैसी भव्य लेकिन चरमराती चिकित्सा व्यवस्था से बचा पाएंगे।
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Guest
Jul 03, 2024
शर्मनाक स्थिति
Guest
Jul 04, 2024
Modi.the.greate what you doing?kindly think.most of new medical colleges are running with ghost faculty because to full fill the requirement faculty not available in country. It should be a gradual process other wise medical education in India will be disatours just like NTA&NEET24
Guest
Jul 04, 2024
Modi.the.greate what you doing?kindly think.most of new medical colleges are running with ghost faculty because to full fill the requirement faculty not available in country. It should be a gradual process other wise medical education in India will be disatours just like NTA&NEET24
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Jul 04, 2024
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