आलेख-डा विट्ठल माहेश्वरी
पूर्व प्रोफ़ेसर ऐंव अध्यक्ष मेडिसन विभाग
महात्मा गाँधी मेडिकल यूनिवर्सिटी जयपुर
आइये COOD नामक एक आम रोग के बारे में जानकारी को अपनी मातृभाषा हिंदी में समझतं हैं। इसे आम भाषा में हम “श्वांस खांसी की बीमारी” का रोग भी कह सकतें है।
यह बीमारी अक्सर लम्बे समय से बीड़ी, सिगरेट, हुक्का, चिलम पीने वाले 40-45 वर्ष से ऊपर की उम्र के लोगों में होती है।
जन साधारण में यह रोग अब बहुतायत से होने लगा है और तेज़ी से बढ़ रहा है । यह रोग मृत्यु का तीसरा सबसे बड़ा कारण है। यह अधेड़ ऊम्र मे 5-6 प्रतिशत तक लोगों को हो सकता है। इसका दूसरा कारण घर में खाना बनाने के लिये चूल्हे में लकड़ी या उपले जलाने से उत्पन्न धुँआ, भी हो सकता है। अति वायु प्रदूषण भी इसे बढ़ाता है।
इसको अंग्रेज़ी में COPD कहा जाता है यानि ‘क्रोनिक ओबस्ट्रक्टिव एअरवे डिजीज’।
इसके नाम के अनुसार यह ऐक क्रोनिक याने लम्बे अरसे या जीवन पर्यन्त रोग है जिसमें फेंफड़ो मे साँस को प्रवेश करने के रास्ते (ब्रोन्काई) में रुकावट (obstruction) हो जाती है।
हवा की बड़ी और छोटी (2mm की) नलियों में यह रूकावट- इनमें सूज़न आने और म्यूकस यानि बलगम जमा होने से होती है। श्वासों के प्रवाह में इसी रूकावट के कारण साँस में तकलीफ़, खांसी और बलगम होती है।
फेंफड़े मे, आक्सीजन को रक्त में सोखने और कार्बन डाइऑक्साइड को बाहर निकालने का कार्य, फेंफड़ो में एलवि्योलाई में सम्पन्न होता है। इस रोग में एलवि्योलाई की सूक्ष्म दीवाल भी क्षत-विक्षत हो जाती हैं। ऐलवीयोलाई फूल जाती है और इसमें हवा का प्रवेश-निकास कम हो जाता है। इससे फेफड़ा का आकार भी फूल कर बड़ा हो जाता है। इसे ऐम्फाईसीमा (Emphysema) कहते है।
और इसी वजह से अन्तत: इस रोग से रक्त में आक्सीजन की कमी और तत्पश्चात् अन्त में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा भी बढ सकती है। इस स्थिति को “रेसपिरेटरी फेल्युअर” कहतें है।
रोग के लक्षण
1- खांसी- यह लम्बी अवधि तक चलती है। और साल में २-३ माह या ज़्यादा भी हो सकती है।
2- कफ या बलगम आना- खांसी के साथ कफ आता है। इन्फक्शेन होने पर यह पीला और गाढ़ा और ज़्यादा मात्रा में आने लगता है। खाँसी और बलगम जल्दी सुबह के समय ज़्यादा आता है।
3- श्वांस में तकलीफ़ या साँस (दम) भरने लग जाता है। यह दम फूलने की तकलीफ़ धीरे धीरे बढ़ती रहती है और अन्ततः रोगी के लिये रोज़मर्रा के छोटे छोटे काम भी करना या दस बीस कदम चलना भी दूभर हो जाता है।
4- COPD नामक इस फेफड़े के रोग में बार बार “खांसी बलगम और श्वांस” की तकलीफ़ ज़्यादा बढ़ सकती है। इसे Acute exacerbations कहते हैं। बार बार ऐसा होने पर फेफड़ों में रोग बढ़ जाता है। और शनैः शनैः फेफड़ों क्षमता का क्षरण होने लगता है। और शरीर की कार्य क्षमता कम हो जाती है।
5- लम्बी अवधि तक रोग के कारण अन्य जटिलताये भी हो सकती हैं जैसे कि रेसपिरेटरी फेल्युयर और कोर पल्मोनेल।
एक बार होने के बाद यह रोग धीरे धीरे निरन्तर बढ़ता है। लेकिन समुचित उपचार से रोग के लक्षण और इस निरन्तर बढ़ाव को नियन्त्रित किया जा सकता है।
रोग का निदान
लम्बे अरसे से धूम्रपान करने वाले अधेड़ उम्र के व्यक्ति के बार बार सा निरन्तर “खांसी बलगम और साँस” की तकलीफ़ के लक्षण होने पर इसका निदान सही तरह से ली गयी हिस्ट्री, शारीरिक परीक्षा और स्पाइमीटरी से किया जा सकता है। विशेष परिस्थितियों में छाती का ऐक्स रे,सीटी स्कैन और बलगम की जाँच भी की जाती है।
उपचार
1- सर्वप्रथम तो रोगी को धूम्रपान बन्द करना अति आवश्यक है। धूम्रपान बन्द कर देने से,रोग के बढ़ने पर, प्रभावी नियंत्रण संभव है। धूम्रपान बन्द करने से मरीज़ का जीवन काल भी बढ़ सकता है। धूम्रपान एक बहुत ही गहरी और हठीली लत है।अत: इसको छोड़ना आसान नहीं है। छोड़ने के बाद भी यह लत बार बार वापस लग जाती है।
अति द्दढ संकल्प, डाक्टर की सलाह और परिवार ऐवम मित्रों के सहयोग से इस छोड़ा जा सकता है। कुछ दवाइयों भी धूम्रपान छोड़ने में मदद करती है। इस लत से छुटकारा पाने के लिए दो तरह की दवाइया कारगर हो सकती है। पहली दवा तम्बाकू में ही पाये जाने वाले “निकोटीन” से बनती है। इसकी टेबलेट, च्युइंगगम आदि उपलब्ध है। दूसरी तरह की दवा दिमाग़ में लत छुड़ाने की आदत को निंयन्त्रित करती है- यह दवा है ब्युप्रोपिओन (Bupropion) और वैरिनिक्लिन (Varenicline)।
इन दवाओं को डाक्टर की देखरेख में ही लिया जाना चाहिए।
2- रोगी के फेंफड़े में संकुचित हुई श्वांस नलिकाओं खोलने के लिये नियमित इन्हेलर ( साँस के साथ खींच कर लेने वाला पम्प) का उपयोग करन चाहिए। ईनहेलर से दवा सीधी संकुचित हुई हवा की नलियों में पहुँचती है इनका संकुचन कम करके श्वांस की तकलीफ़ में काफ़ी आराम पहुँचाती है। साथ ही इनहेलर सी ली गई दवायें हवा की नलियों की सूजन और बलगम कम करती है।
इन्हेलर में मुख्यतः तीन तरह की दवा इस्तेमाल की जाती है। अतः डाक्टर की सलाह से सही दवाओं का इन्हेलर नियमित रूप से लें। इनहेलर को लेने का सही तरीक़ा डाक्टर से अच्छी तरह से सीखे। इन्हेलर से दवा लेने के बाद, सादे या गुनगुने पानी से दो बार गरारा करके गला अवश्य साफ़ कर लें। इनहेलर के नियमित उपयोग से ही आप रोग को नियन्त्रण में रख सकतें ह और साँस की तकलीफ़ से राहत पा सकते हैं।
रोग के प्रभावी नियन्त्रण के लिये इनहेलर नियमित और निरन्तर लेना अत्यावश्यक है।
हाल के अध्ययनों से यह बात सिद्ध हो गई है कि तीन तरह की मिश्रित दवा के इनहेलर के नियमित उपयोग से मरीज़ को आराम के साथ साथ उसके जीवन काल में भी वृद्धि होती है।
3- “खांसी, कफ और सांस” की तकलीफ़ बढ़ने पर सबसे पहले तो साँस की तकलीफ़ में तुरन्त आराम देने वाले इन्हेलर का डाक्टर की सलाहनुसार सही अन्तराल से उपयोग करना चाहिए। साथ ही डाक्टर की सलाह से अपने नियमित इन्हेलर का उपयोग भी बढ़ा सकते हैं।
ऐन्टबायोटिक एवं अन्य दवाये जैसे स्टीरोईड, डेरिफाईलीन, ऐसीटाईलसिस्टिन आदि भी असर कारक हो सकती है। पर इन दवाओं को डाक्टर की सलाह से ही उपयोग करें।
4-बार बार “श्वांस खांसी और बलगम” की तकलीफ़ बढ़ने से रोकने में कुछ टीके भी लाभदायक होते हैं। दो तरह के टीके लिये जा सकते है। एक हर साल में ऐक बार इनफ्लुयेन्जा का टीक लगवाना, मददगार हो सकता है। दूसरा हर पाँच वर्ष में निमोनिया की रोकथाम का टीका भी लगाना चाहिए।
5- इस रोग में शरीर का वजन और मांसपेशियों की ताक़त तेज़ी से कम हो सकती है। इस तरह की कमजोरी रोग को बढ़ाने के साथ मृत्यु का ख़तरा भी बढाती है।
अत: डाक्टर की सलाह से धीरे धीरे पैदल घूमना और हल्का व्यायाम करना चाहिए। इस तरह से शारिरीक शक्ति का बनाये रखने से रोग में आराम मिलता है। पोष्टिक प्रोटीन युक्त भोजन करना भी ज़रूरी है।
6- रोग बढ़ने पर शरीर में आक्सीजन की कमी होने लगती है। साधारणतया इसका पता सुगमता से उपलब्ध ‘ओक्सीमीटर’ से लगाया जा सकता है। निरन्तर आक्सीजन 88% प्रतिशत से कम होने पर आक्सीजन का उपयोग करना लाभप्रद होता है।यह डाक्टर की सलाह से किया जाना चाहिए।
एक ओर तो COPD की बीमारी में बहुत अधिक बढ़ रही है पर दूसरी ओर आधुनिक चिकित्सा में इस पर प्रभावी नियन्त्रण कर के मरीज़ को अधिकतम राहत देना भी सम्भव हुआ है।
आइये आज COPD पर इसकी रोकथाम और नियंत्रण के लिये और अधिक समर्पण से काम करने का निश्चय करते है।
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